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राष्ट्र कवियत्री ःसुभद्रा कुमारी चौहान की रचनाएँ ःउन्मादिनी


असमंजस
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कुसुम अद्वितीय सुंदरी थी। उसकी शिक्षा और व्यावहारिक ज्ञान ने सोने में सुहागे का-सा काम कर दिया था। उसके शरीर पर आभूषणों का विशेष आडंबर न था। वह लाल किनारी की एक साफ साड़ी पहिने थी, जो उसकी कांति से मिलकर और भी उज्ज्वल मालूम हो रही थी। कुसुम का व्यवहार बड़ा शिष्ट था, उसकी वाणी में संगीत का-सा माधुर्य था। वह चतुर चितेरे के चित्र की तरह मनोहर, कुशल शिल्पी की कृति की तरह त्रुटि-रहित, और सुकवि की कल्पना की तरह सुंदर थी।

बसंत के जीवन में किसी युवती बालिका से बातचीत करने का यह पहला ही अवसर था। उसने कुसुम की ओर एक बार देखा फिर उसकी आँखें ऊपर न उठ सकीं। कुसुम ने चाँदी के-से सुंदर प्यालों में चाय बनाकर टेबिल पर रखी। तश्तरियों में जलपान के लिए फल और मिठाइयाँ सजा दीं। बसंत स्वभाव से ही शिष्ट था। किंतु आज वह साधारण शिष्टाचार की बातें करना भी भूल गया और उसने चुपचाप चाय पीना शुरू कर दिया। कुसुम यदि कोई बात पूछती तो बसंत का चेहरा अकारण ही लाल हो जाता, और उसका हृदय इस प्रकार धड़कने लगता जैसे वह किसी कठिन परीक्षक के सामने बैठा हो। चाय पीते-पीते भी उसका गला सूख जाता था और सिवा 'हाँ' या 'न' के वह कुछ बोल न सकता था।

इंटर-यूनिवर्सिटी-डिबेट में जाकर बनारस से अपने कॉलेज के लिए 'शील्ड' जीत लाना बसंत के लिए उतना कठिन न था जितना कठिन आज उसे साधारण बातचीत करना मालूम हो रहा था। वह अपनी दशा पर स्वयं हैरान था और उसे अपने अचानक मौन पर आश्चर्य हो रहा था।
केशव के आग्रह पर जब कुसुम ने सितार पर यमनकल्याण बजाकर सुनाया तो बसंत ने कहा, आप तो संगीत में भी बड़ी प्रवीण हैं।
यह सुनकर कुसुम ने जरा हँसकर कहा, आप तो मुझे बनाते हैं, यह सुनकर कुसुम ने जरा हँसकर कहा, आप तो मुझे बनाते हैं, अभी तो मुझे अच्छी तरह बजाना भी नहीं आता।
यह सुनकर बसंत का अपना वाक्य मूर्खतापूर्ण लगने लगा, और उसे अपनी उक्ति में केवल व्यंग्य का ही आभास मालूम पड़ा।
बसंत बहुत देर बाद बोला था और अब बोलने के बाद अपने को धिक्कार रहा था।

बसंत जब वापिस आया तो उसे कुछ याद आ रहा था कि जैसे कुसुम ने चलते समय उससे कभी-कभी आते रहने का अनुरोध किया था। किंतु वह अकेला कुसुम के घर न जा सका और एक दिन फिर केशव के ही साथ गया। इसी प्रकार बसंत जब कई बार कुसुम के घर गया तो कुसुम ने देखा कि बसंत भी बातचीत कर सकता है। उसकी विद्वत्ता और योग्यता पर तो कुसुम पहले से ही मुग्ध थी, अब उसकी मर्यादित सीमा के अंदर बातचीत और व्यावहारिक ज्ञान को देखकर कुसुम की श्रद्धा और बढ़ गई।

अन्य नवयुवकों की तरह बसंत में उच्छुंखलता और उद्दंडता न थी, उसकी बातचीत, हँसी-मजाक सब सीमा के बाहर न जाते थे। कुसुम ने बसंत से अंग्रेजी पढ़ाने के लिए आग्रह किया, जिसे बसंत ने स्वीकार कर लिया। और इस प्रकार धीरे-धीरे कुसुम और बसंत की घनिष्टता बढ़ने लगी। कुसुम से मिलने के पहले बसंत ने उसके विषय में जो धारणा बना रखी थी कि धनवान पिता की अकेली कन्या जरूर उद्धत स्वभाव की होगी, वह निर्मूल हो गई। अब उसे कुसुम के पास जाने की सदा इच्छा बनी रहती थी, सबेरे से ही वह शाम होने की बाट देखा करता। अपनी दशा पर उसे स्वयं आश्चर्य था।

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